रतनगढ़ माता मंदिर रामपुरा गाँव से 11 किमी दूर तथा दतिया से 65 किमी दूर स्थित है ! यह पवित्र स्थान घने जंगल मे सिंध नदी के तट पर स्थित है ! यहाँ हर वर्ष दिवाली दूज पर हजारों कि संख्या मे लोग दर्शन करने आते है !
दतिया जिला के सेंवढ़ा से आठ मील दक्षिण पश्चिम की ओर रतनगढ़ नामक एक स्थान है। यहां आस पास कोई गांव नहीं है। यहां ऊंची पहाड़ी पर एक दुर्ग के अवशेष मिलते हैं। दुर्ग सम्पूर्ण पत्थर का बना हुआ है, जिसकी दीवारों की मोटाई बारह फीट के लगभग है। यह पहाड़ी तीन ओर से सिन्धु नदी की धारा से सुरक्षित ब घिरी हुई है। यह स्थान अतयन्त ही रमणीक । रतनगढ़ धाम घने जंगल के बीच में है। यहां उस पहाड़ी पर एक देवी का मंदिर बना हुआ है जिसे रतनगढ़ की माता के नाम से जाना जाता है।
गत दो दशकों तक दस्युओं के आंतक के कारण यहां लोगों का आना जाना कम ही हो गया था। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यहां एक मेला भरता है जिसमें अनेक व्यक्ति देवी की मनौती मनाने के लिए आते हैं, जिसकी कामना पूर्ण हो जाती है, वे देवी को प्रसाद चढ़ाने, ब्राह्मण को भोजन कराने और देवी की आराधना में बोये हुए ज्वारे चढ़ाने के लिए आते हैं। इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक एक सिद्ध पीठ के रुप में है। यहां से सात आठ मील की दूरी पर ही देवगढ़ का किला है जो बहुत ही अद्भुत स्थान है।
किले के अनेक कमरों में ताले पड़े हुए हैं जिन्हें कदाचित शताब्दियों से नहीं खोला गया। कहते हैं कि इस स्थान पर रात को कोई ठहर नहीं सकता। जो ग्वालियर से दस मील की दूरी पर है। युद्ध में मारे जाने वाले राजकुमार का चबूतरा भी यहां बना हुआ है जिसे कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है।
किसी भी पुरुष अथवा पशु को सांप काटने पर प्रायः कुँवर साहब के नाम का बंध लगा दिया जाता है जिससे विष का प्रभाव सारे शरीर में व्याप्त नहीं होता। यह बंध कोई धागा आदि नहीं होता जिसे बांधा जाता हो। केवल कूँवर साहब की आन देकर उस स्थान के चारों ओर उंगली फेर देते हैं, इसी को बंध कहा जाता है। दीपावली के पश्चात पड़ने वाली द्वितीया के मेले में इस चबूतरे के पास सपं दंश वाले ऐसे लोगों और गाय, बैल, भैंस आदि के बंध काटे जाते हैं। विचित्र बात तो यह कि पुजारी के बंध काटते हो उस व्यक्ति को मूर्छा आती है, उसे चबूतरे का परिक्रमा कराकर घर जाने दिया जाता है। लेखक को एक बार अपने कुछ साथियों सहित इस चमत्कार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। एक के बाद एक इस प्रकार के अनेक स्री पुरुष जाते गये और बंध काटने के समय उन्हें उनके साथी सहारा देकर चबूतरे की परिक्रमा कराते रहे। पर जब एक बैल का बंध काटने के पश्चात वह चक्कर खाकर गिर पड़ा तो इस चमत्कार को देखकर हम लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। हम लोग भी कुँवर साहब के इस प्रभाव के सामने सिर झुकाकर चले आये।
कुँबर साहब
बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके बाहर अथवा भीतर एक चबूतरे पर दो ईंटें रखी रहती हैं जिन्हें कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है। इन्हें जनमानस में लोक देवता के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। सामान्य व्यक्तियों को इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही बात है कि ये कोई राजपुत्र थे। अनेक स्थानों पर बहुत प्राचीन सर्प के रुप में भी ये दिखाई देते हैं। उस समय एक दूध का कटोरा रख देने से ये अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा लोगों का विश्वास है।
इस पवित्र स्थान पर आसानी से ग्वालियर और दतिया से पहुँचा जा सकता है। इस पवित्र स्थान पर आसानी से वाहन (बाइक / कार आदि) पहुंच सकता है
रतनगढ़ वाली माता का इतिहास: आत्म बलिदान करने वाली राजकुमारी का मंदिर, यहां डाकू भी बड़ी श्रद्धा से चढ़ाते थे घंटा
History of Ratangarh Wali Mata: Temple of a princess who sacrificed herself, here robbers also used to offer bell with great reverence
दतिया के विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिला मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर मर्सेनी (सेंवढा) गांव के पास स्थित है। बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है। यह स्थान पूर्णतः प्राकृतिक और चमत्कारिक है। साथ ही एक दर्शनीय स्थल भी है। जहां वर्षभर हजारों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। प्राकृति का सुंदर रूप मंदिर के चारों ओर देखने को मिलता है। सभी दिशाओं में जंगल ही जंगल है। उसमें टेढ़ी-मेड़ी बहती हुई सिंध नदी भी मंदिर की पहाड़ी को लगभग दो ओर से घेरे हए है। जो अपने आप में अद्भुत प्रतीत होती है। रतनगढ़ की माता धार्मिक और प्राकृतिक वैभव के साथ-साथ ही डकैतों की आराध्य स्थली के रूप में भी विख्यात है।
नवरात्रि आते ही देवी मंदिरों में भक्तों का तांता लग जाता है। मां का प्यार और आस्था दूर-दूर से भक्तों को अपने पास दर्शन को बुला लेती हैं। ऐसा ही प्रसिद्ध मंदिर है मध्यप्रदेश के दतिया जिले में, जहां स्थित विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसके पास से ही सिंध नदी बहती है। यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले श्रद्धालु दो मंदिरों के दर्शन करते हैं। इनमें एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा कुंवर बाबा का मंदिर है। दीवाली की दूज पर लगने वाले मेले में यहां 20 से 25 लाख लोग दर्शन करने आते हैं। साथ-साथ नवरात्र में भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं।
रतनगढ़ वाली माता का इतिहास
बात लगभग 900 साल पुरानी है जब मुस्लिम तानाशाह अलाउद्दीन खिलजी का जुल्म ढहाने का सिलसिला जोरों पर था। तभी खिलजी ने अपनी बद नियत के चलते सेंवढा से रतनगढ़ में आने वाला पानी बंद कर दिया था। रतन सिंह की बेटी मांडूला व उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने अलाउद्दीन खिलजी के फैसले का कड़ा विरोध किया। इसी विरोध के चलते अलाउद्दीन खिलजी ने वर्तमान मंदिर रतनगढ़ वाली माता के परिसर में बने किले पर आक्रमण कर दिया। जो कि राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला को नागवार गुजरा। राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला बहुत सुंदर थी। उन पर मुस्लिम आक्रांताओं की बुरी नजर थी। इसी बुरी नजर के साथ खिलजी की सेना ने महल पर आक्रमण किया था। मुस्लिम आक्रमणकारियों की बुरी नजर से बचने के लिए बहन मांडुला तथा उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने जंगल में समाधि ले ली। तभी से यह मंदिर अस्तित्व में आया। इस मंदिर की चमत्कारिक कथाएं भी बहुत हैं।
बाढ़ में बह गया पुल, फिर भी दर्शन को पहुंच रहे भक्त
गत वर्ष सितम्बर माह में आयी सिंध नदी में बाढ़ के चलते सिंध नदी पर बना हुआ पुल बह जाने से श्रद्धालुओं के पहुंचने की व्यवस्था प्रभावित हुई। यह रास्ता दतिया, झांसी और बुंदेलखंड के अन्य जिलों के भक्तों के मंदिर पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग था। लेकिन माँ रतनगढ़ वाली माता के भक्तों के लिए यह अवरोध भी आड़े नहीं आया। पुल टूटने से भक्त श्रद्धालु 100 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करके माता के दर्शन करने पहुंच रहे हैं।
विष पर बंधन लगा देते हैं कुंवर बाबा
मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे। कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे। इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं। इसके बाद इंसान भाई दूज या दिवाली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है। सर्पदंश के पीड़ित व्यक्तियों को सर्पदंश की पीड़ा से यहां मुक्ति मिलती है। व्यक्ति मंदिर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित सिंध नदी में स्नान करते ही बेहोश हो जाता है। उसे स्ट्रेचर की मदद से मंदिर तक लाया जाता है। प्रशासन द्वारा लगभग तीन हजार स्ट्रेचर की व्यवस्था की जाती है और कुंवर बाबा के मंदिर पर पहुंचकर जल के छींटे पड़ते ही सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है।
छत्रपति शिवाजी ने कराया था निर्माण
यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय की निशानी है। यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था। तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी। कहा जाता है कि रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को देवगढ़ के किले में दर्शन दिए थे। शिवाजी महाराज को मुगलों से फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया था। फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना वीर मराठा शिवाजी की सेना से टकराई, तो मुगलों को पूरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा और मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। यहां मन्नतों के पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं। यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से श्रद्धा प्रकट करते हैं। कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट-लेट कर यहां आता है। कोई जौं बोकर माता रानी की नौ दिन तक सेवा करते हैं। इसके बाद नौ वें दिन जौ चढ़ाने पैदल चलकर मंदिर पहुंचते हैं। मान्यता हैं कि यहां से हर भक्त अपनी मुरादें पूर्ण कर अपने घर खुशियां लेकर वापस लौटता है। मईया अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती हैं। मईया भक्तों की हर समस्या को दूर कर उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी करती हैं।
बीहड़ के डाकू (बागी) भी चढ़ाते थे यहां घंटा
बीहड़, बागी और बंदूक के लिए कुख्यात रही तीन प्रदेशों में फैली चंबल घाटी का डकैतों से रिश्ता करीब 200 वर्ष पुराना है। यहां 500 कुख्यात डकैत रहा करते थे। रतनगढ़ वाली माता मंदिर में चंबल इलाके के सभी डाकू (बागी) इस मंदिर में पुलिस को चैलेंज करके दर्शन करने आते थे। लेकिन इस दौरान एक भी डकैत पकड़ा नहीं गया। चंबल के बीहड़ भी, डाकू स्वीकार नहीं करते थे। जिसने इस मंदिर में घंटा ना चढ़ाया हो। इलाके का ऐसा कोई बागी नहीं जिसने यहां आकर माथा ना टेका हो। माधव सिंह, मोहर सिंह, मलखान, मानसिंह, जगन गुर्जर से लेकर फूलन देवी ने माता के चरणों में माथा टेक कर, घंटा चढ़ा कर आशीर्वाद लिया है। ऐसा कहा जाता है इस दौरान मंदिर में कोई भक्त मिला तो डाकुओं ने उनके साथ वारदात नहीं की।
विंध्याचल पर्वत पर स्थित है माता का मंदिर,मंदिर में घंटा चढ़ाने की है मान्यता
मन्नत पूरी होने पर श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों घंटे मां के दरबार में चढ़ाए जाते हैं। मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की पूर्व में नीलामी की जाती थी। वर्ष 2015 में जिला प्रशासन की मंशा पर यहां पर एकत्रित घंटों को गलवाकर विशाल घंटा बनवाकर चढ़ाया गया है। रतनगढ़ माता मंदिर पर नवरात्र 16 अक्टूबर 2015 में देश का सबसे वजनी, बजने वाला पीतल के घंटे का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था। इसे नौ धातुओं से मिलाकर बनाया गया है। इस घंटे की खासियत यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है।चाहे चार साल का बालक हो या अस्सी साल का कोई बुजुर्ग। इस विशाल घंटे को टांगने के लिए लगाए गए एंगल व उन पर मड़ी गई पीतल और घंटे के वजन को जोड़ा जाए तो लगभग 50 क्विंटल होता है। इस घंटे को प्रख्यात मूर्ति शिल्पज्ञ प्रभात राय ने तैयार किया है। घंटे की ऊंचाई लगभग 6 फुट है और गोलाई 13 फुट है।
इस तरह पहुंच सकते हैं माता के दरबार
How to Reach on Ratangarh Mata Mandir
ट्रेन व सड़क मार्ग द्वारा: इस मंदिर के दर्शन के लिए आप भारत के किसी भी कोने से आ सकते हैं। आप झाँसी, दतिया व ग्वालियर स्टेशन के माध्यम से यह तक आसानी से पहुँच सकते है। सबसे पहले आप झाँसी, दतिया व ग्वालियर के बस स्टेंड पर जाकर रतनगढ़ वाली माता जाने वाली बस के द्वारा श्री रतनगढ़ माता रोड, मध्य प्रदेश 475682 पहुँच सकते हैं।
हवाई यात्रा के द्वारा: रतनगढ़ मंदिर के सबसे नजदीक हवाई अड्डा ग्वालियर में स्थित है। आप ग्वालियर हवाई अड्डा पर उतरकर आसानी से बस लेकर माता के मंदिर तक पहुँच सकते है।
रतनगढ़ मेला 2022 में कब लगेगा
रतनगढ़ माता मेला कैलेंडर के अनुसार-
रतनगढ़ माता मेला 2022 – बुधवार, 26 अक्टूबर
रतनगढ़ माता मेला 2023 – मंगलवार, 14 नवंबर
रतनगढ़ माता मेला 2024 – रविवार, 3 नवंबर
रतनगढ़ माता मेला 2025 – गुरुवार 23 अक्टूबर
रतनगढ़ माता मेला 2026 – बुधवार, 11 नवंबर
रतनगढ़ माता मेला 2027 – रविवार, 31 अक्टूबर
रतनगढ़ माता मेला 2028 – गुरुवार, 19 अक्टूबर
रतनगढ़ माता मेला 2029 – बुधवार, 7 नवंबर
रतनगढ़ माता मेला 2030 – सोमवार, 28 अक्टूबर
हवाईजहाज द्वारा
रतनगढ़ से 78 किलोमीटर दूर ग्वालियर निकटतम हवाई अड्डा है |
रतनगढ़ से दतिया 65 किलोमीटर और ग्वालियर शहर 78 किलोमीटर है, जो सड़क मार्ग से अच्छी तरह से कनेक्ट है |
From Gwalior:
Google direction From Gwalior
http://goo.gl/maps/i1fzE
Google direction from Datia
http://goo.gl/maps/eDyau
Ratangarh Mata Temple, Shri Ratangarh Mata Road, Pali, Madhya Pradesh, India
Open Monday to Sunday 7:00 A.M. to 9:00 P.M.
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